छोटे-छोटे सवाल (उपन्यास): दुष्यन्त कुमार
श्रोत्रिय ने सीधा-सा सवाल किया।"ये बातें आप कमेटी के मेम्बरों से पुछिएगा।" पवन बाबू ने उसी बेरुखी से कहा और एक क्षण रुककर बोले, "श्री सते वरत !"सत्यव्रत इन लोगों की बातचीत में खोया था। अपना नाम सुना तो तुरन्त उठकर खड़ा हो गया। पवन बाबू ने उसे अपने पीछे आने का इशारा किया और बराबरवाले प्रिंसिपल के कमरे की ओर चल दिए, जहाँ कमेटी के सदस्य बैठे हुए थे।पवन बाबू के जाने के बाद राजेश्वर बोला, "साला अब कैंडे पर आया। हम तो 'यस प्लीज़' और 'यस सर' कहें, और वे हमारे नाम के साथ 'श्री' या 'मिस्टर' तक नहीं लगा सकता।
"असरार, जो राजपुर का ही रहनेवाला था, बोला, "बड़ा जलैहंडा है। उत्तमचन्द का खास गुर्गा है यह। हर साल प्रिंसिपल को निकलवा देता है उससे मिलकर।""अच्छा !" श्रोत्रिय ने पूछा, "आजकल प्रिंसिपल कौन है?""उत्तमचन्द ही ऑफीशिएट' कर रहा है।" असरार बोला, "प्रिंसिपल की तलाश है।""तलाश-वलाश की बात नहीं है," राजेश्वर ने कहा, "उपप्रधानजी का छोटा लड़का इस साल बी.टी. में दाखिला ले रहा है। देख लेना, बी.टी. करते ही प्रिंसिपल न हो जाए तो!"“मगर रूल्स के हिसाब से तो कमेटी के मेम्बर का कोई रिश्तेदार कॉलेज में नौकरी नहीं कर सकता।" केशव बोला।राजेश्वर हँस दिया।
पाठक ने कहा, "छोड़ो यार, रूल्स-वूल्स में क्या रखा है।"और एक क्षण के लिए जैसे सब फिर किसी गहरे सोच में डूब गए। असिस्टैंट टीचर्स की पोस्ट के उम्मीदवारों को तो जैसे अपने भविष्य का पता था मगर हिन्दी के लेक्चररशिप के उम्मीदवार गहरे असमंजस में थे। श्रोत्रिय बराबर वही सोचे जा रहा था कि आज अगर वह सिगरेट न पीता तो क्या बिगड़ जाता? बड़ी गलती हुई। कभी-कभी उसे यह भी खयाल आता था कि पता नहीं चाचा वकील साहब के यहाँ गए भी होंगे या नहीं। कहीं यहाँ तक आना ही अकारथ न जाए।
सलेक्शन कमेटी (अध्याय-2)इंटरव्यू खत्म हो चुके थे, मगर उस कमरे में गहमागहमी थी। अलग-अलग स्वरों में दस-बारह आवाजें एक-दूसरे पर प्रस्थापित होने की कोशिश कर रही थीं। खड़ी बोली एक तो यूं ही खड़ी होती है, फिर अपने उद्गम-स्थान ज़िला बिजनौर में वह जरा स्वाभाविक रूप में चलती है। इसलिए साधारण-सी बहस एक छोटे-मोटे बलवे का मजा दे रही थी। आखिर लाला हरीचन्द से न रहा गया। उन्होंने मेज पर एक छोटा-सा घूँसा मारकर कहा, "भय्यो ! जरा सोच्चो तो।
बरोब्बर के कमरे में सारे मास्टर लोग बैठे हैं। कोई सुनेगा तो क्या कहवैगा ?"मैनेजिंग-कमेटी के सारे सदस्य इंटरव्यू-कमेटी के भी सदस्य थे। चुनांचे प्रिंसिपल के कमरे से बड़ी मेज़ निकलवा दी गई थी ताकि तेरह कुरसियाँ और एक छोटी-सी मेज उसमें आ सके। एक अतिरिक्त कुरसी उम्मीदवार के बैठने के लिए रखी गई थी जो उस छोटी-सी मेज के बिलकुल सामने थी। मेज़ के बीच में कमेटी के प्रेसीडेंट लाला हरीचन्द, दाहिनी ओर वाइस प्रेसीडेंट चौधरी नत्थूसिंह और बाईं ओर सेक्रेटरी श्री गनेशीलाल बैठे थे।
सेक्रेटरी की बराबर में एक बिना हत्थे की कुरसी पर ज्वाइंट-सेक्रेटरी गुलजारीमल और वाइस-प्रेसीडेंट के बाजू में कमरे के बाहर पड़ा हुआ एक स्टूल उठाकर मास्टर उत्तमचन्द बैठे हुए थे।लाला हरीचन्दजी की बुजुर्गी की कस्बे में भी इज्जत थी और कमेटी के मेम्बर भी उसकी इज्जत करते थे। इसलिए थोड़ी देर के लिए कमरे का वातावरण शान्त हो गया और लोग धीरे-धीरे बातें करने लगे। मगर जब फिर किसी निर्णय पर नहीं पहुंच पाए तो आवाजें ऊँची उठने लगीं। एक मेम्बर दूसरे से ऊँचा बोलकर अपनी बात मनवाने की कोशिश करने लगा और इस प्रतिस्पर्धा ने फिर लाला हरीचन्द के कोमल हृदय को छू लिया। लालाजी बोले, "भय्यो, बड़े अफसोस का मुकाम है। अब लौ आप लोग किसी फैसले पर नहीं पहुंचे। इत्ती देर में तो सुनते हैं जरमनीवाले ने पूरा जापान जीत लिया था। तो भय्यो, मैं तो चला भट्टे पर। मेरी पचास हजार ईंटों का चक्कर पड़ा है।